भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुबह / निकअलाय रेरिख़ / वरयाम सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं न जानता हूँ और न जान सकता हूँ
जब मुझे इच्छा होती है, सोचता हूँ, —
क्या किसी की इच्छा
मेरी इच्छा से बड़ी हो सकती है ?

जब ज्ञान होता है, सोचता हूँ —
क्या किसी का ज्ञान
मेरे ज्ञान से अधिक सशक्त हो सकता है ?

जब मैं समर्थ होता हूँ, सोचता हूँ —
क्या किसी का सामर्थ्य
मेरे सामर्थ्य से अधिक श्रेष्ठ और अर्थपूर्ण हो सकता है ?

और यह मैं रहा
न मुझे ज्ञान है
न मुझमें कोई सामर्थ्य ।

ओ ख़ामोशी में आने वाले,
तू मुझे चुपके से बता —
मैंने जीवन में किस चीज़ की इच्छा की
और क्या प्राप्त किया ?

मेरे सिर पर अपना हाथ रख
कि मैं पुनः समर्थ हो सकूँ
और इच्छा कर सकूँ —
रात में जिसके लिए कामना की
वह मुझे याद आ सके
सुबह ।

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह

लीजिए, अब यही कविता मूल भाषा में पढ़िए

            Николай Рерих
                 Утром
Не знаю и не могу.
Когда я хочу, думаю, —
кто-то хочет сильнее?
Когда я узнаю, —
не знает ли кто еще тверже?
Когда я могу, — не может ли
кто и лучше, и глубже?
И вот я не знаю и не могу.
Ты, в тишине приходящий,
безмолвно скажи, что я в жизни
хотел и что достигнуто мною?
Возложи на меня свою руку, —
буду я снова и мочь и желать,
и желанное ночью вспомнится
утром.