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सुबह का चावल नहीं है, रात का आटा नहीं / नूर मुहम्मद `नूर'
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सुबह का चावल नहीं है, रात का आटा नहीं
किसने ऐसा वक़्त मेरे गाँव में काटा नहीं
शोर है कमियों ही कमियों का हर इक लम्हा यहाँ
मेरे घर में आजकल कोई भी सन्नाटा नहीं
क्या हुआ पैसे नहीं मिलते, मगर मिलता है सुख
लिखने-पढ़ने में बहुत ज्यादा मगर घाटा नहीं
दर्दो-गम है भूख है पीड़ा है चोटें और दुख
इस नदी में ज्वार तो आए मगर भाटा नहीं
क़र्ज़ की हम भी इधर खाते हैं पीते हैं 'असद'
नूर, अंबानी नहीं, बिड़ला नहीं, टाटा नहीं
शब्दार्थ
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