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सुबह की कविता / प्रदीप जिलवाने
Kavita Kosh से
रात धीरे-धीरे दीवार फाँद गई,
चाँद मेरी छत से होकर गुज़र गया
जुगनूओं का शोकगीत अब भी जारी है।
गर्मागर्म मुद्दों की अलाव जलाकर
सर्द सुबहों में लोग अपने हाथ सेंक रहे हैं
और जो थोड़े सोए थे
सनसनीखेज़ ख़बरों की चादर ओढ़कर
अभी भी सोए हैं
और बड़बड़ा रहे हैं नींद में।
यह समय
इस युग का सबसे कठिन समय है
और यह युग,
अपनी उपेक्षा से तिलमिलाया, क्रोध से फफक रहा है।
रातभर की डरी खिड़कियाँ
अभी-भी काँप रही है किसी अजान भय से।
आदमी के लिए सबसे शर्म की बात तो यह है कि
दरवाज़े,
जो महज औपचारिकता थे कभी
आज खुलते नहीं,
बाहर का शोर सुनकर भी।