सुबह गाँव में / सुरेश विमल
सूर्य की रक्त-पताका
फहराती नहीं क्षितिज पर
कि नये दिन का व्यापार
शुरू हो जाता है
गांव में...
होने लगती है
गाय-भैंसों के
सानी-पानी की
खट-पट...
शांत, सम्मोहक वातावरण में
गूंजने लगती है
थनों से निकलते हुए दूध की
मधुर...मर्मर ध्वनि...
मंथन होता है
दधि-समुन्द्र का
और मक्खन का रत्न
उभर आता है
छाछ की सतह पर...
चक्की चलाती हुई
'कमरी' बहू
शुरुआत करती है नये दिन की
मायके में सीखे हुए
भक्ति-गीतों से...
मन्दिर के पुजारी जी
'जै जगदीश हरे' सुन कर
एक साथ पुकार उठते हैं—
मोर...
गूंजने लगता है गाँव भर में
एक मीठा-मीठा-सा
शोर...
सूर्य की प्रथम किरणें
गुदगुदाती हैं
पखेरुओं के पंख...
झूलने लगती हैं
नीम, पीपल, सेमल की
टहनियों पर...
और थिरकने लगती है
गांव से सटी हुई
तलैया कि लहरों पर...
चूल्हे के धुएँ से
भर जाता है आंगन
चुरा कर भागता है हवा
सोंधी-सोंधी रोटियों की
गंध...
मेला लगता है पनिहारिनों का
कुएँ पर
होती हैं चर्चाएँ
कि कैसे-कैसे
गुज़री रात...
टकराती और छलकती हैं
गगरियाँ
खिलखिलाती हैं पनिहारिनें
उड़ जाते हैं
फड़फड़ाते हुए
कुएँ के कबूतर...
उपलों के अलंकृत बिटौरों पर
चलते हुए मोरनी के चूजों को
कौतूहल से निहारते हैं
एकटक बालक
चबाते हुए सूखी रोटी...
चुनरी के एक सिरे से
फैले हुए काजल को
संवारती है
छोटे-से गोल शीशे में
देख-देख कर
लज्जावनत एक नवोढ़ा...
शुरू होता है
कुछ इसी तरह
एक नये दिन का व्यापार
गांव में।