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सुबह बनने चली दोपहर / विनोद तिवारी
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सुबह बनने चली दोपहर
फिर भी सोया पड़ा है शहर
प्यार के गीत के बोल तक
भूलते जा रहे हैं अधर
हैं पराए-पराए-से दिल
अजनबी-अजनबी-सी नज़र
भीड़ ही भीड़ है हर तरफ़
फिर भी तन्हा हैं हम किस क़दर
रौशनी तो बहुत तेज़ है
खो गई है कहीं पर डगर