भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सुलफ़े का दम / त्रिलोचन
Kavita Kosh से
कुंभ नगर के नागरिकों की बस्ती देखी
भोर, दोपहर, संझा और रात की बेला
सजे एक से एक अखाड़े मस्ती देखी ।
"'सब के दाताराम'-अर्थ क्या है," यह चेला
पूछ रहा था; बोले गुरू, देख आ मेला
बैरागी रागी है और माल खाते हैं
मूढ़, विधाता का है यह छोटा सा खेला
देख कुली मज़दूर वस्तु ढो कर लाते हैं
मज़दूरी के पैसे पर धक्के पाते हैं
साधु-संत सोते हैं सुखी पाँव फैलाए
कितने ही लखपती पास उन के आते हैं
चरणधूलि लेते हैं, वहीं स्वर्ग से आए।
बमभोले शंकर गाँजे का, सुलफ़े का दम
लिया गुरू ने; लहर उठी, फिर बोले, बम बम ।