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सूखा निर्झर-सावन आ रे / रामकृपाल गुप्ता
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सूखा निर्झर-सावन आ रे।
निर्झर सूख गया, पत्थर पर पड़ी घरारें
मटियारें गालों पर सूखी, ज्यों आँसू की धारें।
कल कलरव की इंगिति शेष नहीं कुछ,
सुख या दुख, उद्विग्न विशेष नहीं कुछ,
हैं निःस्पन्द दाग-धब्बों से भरी दीवारें,
अनचाहा ढकने को उद्यत, टँगी किनारे
अनगढ़ सूखी राहों के अनमेल विकर्षण,
निरावरण है, मूर्तिमान निस्संग-या मरण,
जाने क्या-क्या ले आती है नियति, उपकरण,
आ रे सावन आ रे आ रे, बुला रहा है निर्झर,
तरलित अवगुंठन-सा ढल जा,
धुआँधार झर-झर-झर
सूखा निर्झर, प्लावन आ रे
आ रे सावन आ रे आ रे।