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सूखी नदी देख कर / रमेश तैलंग
Kavita Kosh से
सूखी नदी देख कर सचमुच अच्छा नहीं लगा.
पहले कैसी भरी-भरी थी
ऊपर तक जल से,
रोज नया संगीत सुनाती
थी कल-कल-कल से,
जब से सूने पड़े किनारे, मेला नहीं लगा.
कहाँ खो गए वृक्ष, लताएँ,
फूल, पात तट के,
क्या हो गया परिंदों को
जो पास नहीं फटके,
सब कुछ अपना हो कर भी कुछ अपना नहीं लगा.
कुछ तो भूल हुई है हमसे
हे पर्वत देवा!
या फिर हमने सच्चे मन से
करी नहीं सेवा,
बड़े दिनों से जुगल चरण पर मत्था नहीं लगा.