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सूरज की कविताएँ (भूख) / सोमदत्त
Kavita Kosh से
उस रोज़
उसके चेहरे पे ऎसा लगा जैसे
पहली झुर्री दिखी
उस सूरज के चेहरे पर : जिसे मैं नक्षत्र माने बैठा था
मंगल, शुक्र, बुध और जाने किस-किस के जैसा
उस रोज़
मेरा भ्रम टूटा
जब उसमें मुझे अपनी दाई की पहली झुर्री दिखी,
काले कोस बीस बरस
लगातार दोनों जून
निकलने से पहले
लौटने के बाद
गुंगुवाते चूल्हे पर झुकी,फूँका मारती, रोटी पलटाती
भूख के सौंधेपन तक सबको पहुँचाती
जिसकी रीढ़
अस्त होने तक नहीं झुकी