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सूरज झाँकेगा / कविता भट्ट
Kavita Kosh से
राख हुआ जज्बा, मगर
सुलग रही इक चिंगारी।
बोझ खत्म उम्मीदों का
और साँसें भारी - भारी।
तुम तो रौशन हो ही गए
काल कोठरी हमें प्यारी।
कौन बाँचता काले कागज
गाया राग जो दरबारी।
उनके प्यार में खोए हम
जो घृणा के हितकारी।
संन्यासी बनते भी कैसे
दूजे के हित ही संस्कारी।
चलो तपस्या बहुत हो चली
धृतराष्ट्र को थामे गांधारी।
पाण्डव खांडव घूम रहे
जीवन संघर्ष हुआ संहारी।
इंद्रप्रस्थ भी बन जाएगा।
यदि इच्छा शक्ति बनवारी
कभी तो सूरज झाँकेगा
महकेगी तब यह फुलवारी।