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सूरज डूबा है आँखों में, आज है फिर सँवलाई शाम / द्विजेन्द्र 'द्विज'
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सूरज डूबा है आँखों में, आज है फिर सँवलाई शाम
सन्नाटे के शोर में सहमी बैठी है पथराई शाम
सहमे रस्ते थके मुसाफ़िर और अजब —सा सूनापन
आज हमारी बस्ती में है देखो क्या—क्या लाई शाम
‘लौट कहाँ पाए हैं परिंदे आज भी अपने नीड़ों को’
बरगद की टहनी की बातें सुन—सुनकर मुरझाई शाम
साया—साया बाँट रहा है दहशत घर—घर , बस्ती में
सहमी आँखें, टूटे सपने और है इक पगलाई शाम
अभी—अभी तो दिन है निकला , सूरज भी है पूरब में
‘ द्विज ’! फिर क्यों अपनी आँखों में आज अभी भर आई शाम