सृजन की पीड़ा / दीपा मिश्रा
मैं हर रोज
एक नई कविता को जन्म देती
क्योंकि शब्द
मेरे मन के गर्भ में पलते रहते हैं
अगर मैं उन्हें
बाहर ना निकालूं
तो मुझे असह्य पीड़ा होती है
ये वही पीड़ा जो एक माँ
प्रसव के समय महसूस करती
इस पीड़ा को सिर्फ
मैं ही समझ सकती हूं
या फिर मेरे जैसे कुछ लोग
जो लिखते हैं
जो पिरोते हैं शब्दों में
अपनी भावनाओं को
यह अनायास नहीं होता
इसके पीछे बहुत कुछ छुपा होता
कुछ शब्द मन की उपज होते हैं
कुछ दिमाग की तो
कुछ आत्मा की उपज
अगर उन्हें बाहर ना निकालें
तो एक उथल पुथल सी मचती है
और वही एक भयानक पीड़ा को
जन्म देती है
और यही पीड़ा
एक नव सृजन का आधार
अब हमें ही कृष्ण बनना होगा
चक्र सुदर्शन धारण करना होगा
एक नव युग का आह्वान करें
सब मिलकर ये संकल्प करें
सत्य के पथ पर चलते हुए
हर बुराई से मिलकर लड़ें
अब हमें ही कृष्ण बनना होगा
चक्र सुदर्शन धारण करना होगा