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सोच की कुंठा / अर्चना कुमारी
Kavita Kosh से
कल रात बड़ी अजीब थी
सारी गालियां कमरे में बिखरी
मुंह चिढ़ा रही थी
सभ्य होने के ताने से
तकिए के सर में दर्द है
प्रेम में खुली हुई स्त्री
पुरुष का मान होती है
सत्ता के राजदंड से नहीं हांकी जाती
औरतें प्रेम वाली
दर्ज आपत्तियों का वंश चलता रहता है
व्यक्तिवाद की कोख में
समय की ललाट पर रक्त तिलक की तरह
सुशोभित प्रेम
नकारता है प्रश्नों का आधारहीन होना
पुरुष की भुजाओं में
नि:शंक स्त्री
उत्तर है
भयभीत कुंठाओं का।