भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सोच को मेरी नई वो / देवी नांगरानी
Kavita Kosh से
सोच को मेरी नई वो इक रवानी दे गया
मेरे शब्दों को महकती ख़ुशबयानी दे गया।
कर दिया नीलाम उसने आज खुद अपना ज़मीर
तोड़कर मेरा भरोसा बदगुमानी दे गया।
सौदेबाज़ी करके ख़ुद वो अपने ही ईमान की
शहर के सौदागरों को बेईमानी दे गया।
जाने क्या क्या बह गया था आँसुओं की बाढ़ में
ना ख़ुदा घबरा के उसमें और पानी दे गया।
साथ अपने लेके आया ताज़गी चारों तरफ़
सूखते पत्तों को फिर से नौजवानी दे गया।
आशनाई दे सके ऐसा बशर मिलता नहीं
बरसों पहले जो मिला वो इक निशानी दे गया।
एक शाइर आके इक दिन पत्थरों के शहर में
मेरी ख़ामोशी को ‘देवी’ तर्जुमानी दे गया।