सोचना दिन-रात / अमरजीत चंदन
नाज़ली अतिया बेगम की याद निमित्त
नाज़ली बीबी सब कुछ भूल चुकी थी
क्या कुछ भूली कोई न जाने
सोचें* यादें
यादें सोचें
सोचें सोचें यादें यादें
जागना सोना एक ही सपना
मुँह उठाकर आँखें भर उसने मुझको देखा
बोली :
'मैं पछाण लिआ तुहानूँ’
(मैं ने पहचान लिया आपको)
फिर शरमाई आँखें नीचे कर लीं
अमारा ने इसरार किया था
चलो, मैं दादी अम्मी से मिलवाती हूँ
हम पहले कभी मिले नहीं थे
नाज़ो बीबी ने मुझ में क्या देखा था —
कोई रिश्तेदार, कोई सिक्ख सरदार पगड़ी वाला
जिस से मेरी शक़्ल मिलती थी
या मैं उसकी परछाईं था
तीन पीढ़ियाँ गुज़र गईं
दादा को सिक्ख से मुसलमान हुए
शहर बटाला, गाँव फ़तहगढ़
अब कहाँ है
है भी है या नहीं है
उस गाँव और लाहौर के बीच लहू से भरी रावी नदिया
पाताल सी गहरी बहती सूख चुकी थी
मैं कभी न जान सकूँगा
उस बन्दे को
जिसे नाज़ली बीबी ने देखकर मुझे कहा था :
'मैं पछाण लिआ तुहानूँ’
पंजाबी से हिन्दी अनुवाद स्वयं कवि द्वारा
—
- ’सोचें’ शब्द का यहाँ तात्पर्य ख़याल से है ।
[नोट : अमरजीत चन्दन ने बताया कि नाज़ली अतिया बेगम से उनकी मुलाक़ात लाहौर में हुई थी। 1947 से पहले नाज़ली का परिवार गुरदासपुर ज़िले के फ़तेहगढ़ गाँव में रहता था। विभाजन से बहुत दशक पहले नाज़ली बेगम के दादा मुसलमान बन गए थे।]