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सोचो! सोचो! / योगेन्द्र दत्त शर्मा
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सोचो! सोचो!
यह सुगना
जो कल तक हंसता-मुस्काता था
गीत हर समय ही गाता था
सबके मन को बहलाता था
अब क्यों अक्सर चुप रहता है
इसकी टिटकारी को सहसा
ऐसे कैसे गहन लग गया
गुमसुम आंखों से आंगन को
ऐसे क्यों ताका करता है
जैसे कोई निपट अकेला
डरा आदमी
बियाबान सूने जंगल में
वहशी छायाओं से सहमा
अपनी ही बोली सुनने को तरसे
आकुल होकर चीखे
चीख न पाये
इस सुगना की चुप्पी से घायल है आंगन
सोचो! सोचो!
बिना बात इसके पंखों को
यों मत नोंचो!
-1 फरवरी, 1991