भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सोनाली फ़सल का अर्थ / स्वदेश भारती

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सारा गांव फ़सल पकते ही
आनन्दोत्सव में मग्न हो जाता है
उसे पता होता है कि कितना धान (चावल) या गेहूँ,
तिलहन, कितनी दाल मिल सकती है
खाने के लिए अन्न की कमी नहीं होगी
बाग़ों में अमराई बौराती
कई-कई पेड़ों में नन्हें नन्हें टिकोरे लगते
सूर्योदय की सतरँगी किरणों में
पके गेहूँ की बालियाँ स्वर्णिम
चमकदार हो जातीं ।

पूर्व क्षितिज की लोहित लावण्यभरी लालिमा
और दूर तक फैली सोनाली फ़सल
मन को अनजाने सुख-सौन्दर्य से भर जाती है
मैं गेहूँ के खेत की मेंड़ पर उगी
हरी घास पर बैठा किसान के परिश्रम से पकी फ़सल
और प्रकृति का नैसर्गिक, सौन्दर्य देखकर
अनुमान लगा रहा हूँ
सारे देश के परिश्रम से ही जन-जन की भूख
और किसानों की अभावग्रस्तता, दुर्भिक्षता के विरुद्ध
सत्ता की बैसाखियों को परे हटाकर
स्वच्छन्द जिन्दगी जीने को मिलती है ।

टूटी फूटी झोपड़ी में कण्डी के उठते धुएँ के बीच
तवे पर रोटी पकती है
भूखे, नँगे बच्चों के कुम्हलाए मुख पर
ख़ुशी की कली खिलती है ।

झाउ का पुरवा (प्रतापगढ़), 2 अप्रैल 2013