सोफ़िया के बच्चे / कर्णसिंह चौहान
बर्फ़ की रूई के बिछौने पर
रंग-बिरंगे
परकोटों, कनटोपो में
लड़खड़ाते गिरते
मन की मूर्तियाँ गढ़ते
ढेले फैंकते
हरे नीले परिधान में
गुलाब से खिलते
कितने प्रसन्न हैं सोफिया के बच्चे।
भरा गदबदाया बदन
संगमरमर सा तराशा मन
मुस्कुराती नीली आँखें
पुलकित मन
लहराते हैं ट्युलिप के खेत
सजी है डेलिया की क्यारी
हजारों सूरज उगे हैं
गुलाब की घाटी में
कितने सुंदर हैं सोफिया के बच्चे।
वे हर कहीं चहक रहे हैं
गर्म रोटियों के पास
दुकानों, बाज़ारों में
पार्कों, सड़कों में
किसी की उंगली पकड़े
वे हर कहीं महक रहे हैं
उनकी सुगंध से
भरा है शहर
कितने मोहक हैं सोफिया के बच्चे।
मारिया खुश है और पीटर
खुश है समाधी में दिमित्रोव
बूढ़ा जिवकोव
बच्चों ने खींच दी है
चौराहे में बोतेव की प्रतिमा पर हँसी
वितोशा की छत पर
वारना की सुनहरी रेत पर
स्पार्टा की गोदी में
पुराने पहाड़ के अंबर अंबर पर
वे मिटा रहे हैं आटोमन के दाग
हिटलर के धब्बे
दुनाव का मैलापन
भर रहे हैं युवाओं से सूना यह आंगन
कितने खुशनसीब हैं सोफिया के बच्चे।