सोलमॅ सर्ग / उर्ध्वरेता / सुमन सूरो
मधुमती
सुखलॅ सावन भरलॅ भादॅ सबदिन बितलै एक्के रं,
जें जिनगी दावॅ पर देलकै सब दिन जितलै एक्के रं।
हवा वसन्तॅ के सहलै ने गेलै फूल कली के गाँव,
लेकिन काँटा के रस्ता सें नै डिगलै तनियों भी पाँव।
जे सतपथ पर खाढ़ॅ रहलै बाव-बबंडर झेली केॅ;
गुज्ज अन्हरिया में तारा रं सब दिन रितलै एक्के रं।।
कहॅ बहिनपा आगू खिस्सा संगर अजब बुढ़ारी के,
इतिहासॅ के अमर सारथी - युद्धॅ के तैयारी के।
झुकलै नै जे कहियो अपना आनॅ पर बलिदानॅ पर;
बे मौसम भा जीवन-रस सें सबदिन तितलै एक्के रं।।
घुरला पर उपलब्य नगर में की होलै कृष्णॅ के डेग?
सुचेता
प्रगट करलकै दुर्योधन के अभिमत दुर्मत रन-आवेग,
वीरॅ के जेरॅ हरसैलै पांचजन्य के घोषॅ पर।
उन्मादें घरबास करलकै सबके चित लै एक्के रं।
यज्ञसेनि के नयन-कोर पर उगलै मुस्कानॅ के रेख,
बहुत दिनॅ के बाद आसरा भेलै पुरत मन के तेख।
तेजवन्त कोमल आँखी में ताकलकै भीमॅ के दीश;
धार करै पौरुष पर मानॅ रेती नित लै एक्के रं।।
मधुमती
बोरी विष-अमृत में सोधै सुन्दर नारी ने मुस्कान,
युद्धॅ के उन्माद कभी तेॅ बाँटे कभी सृजन के तान।
संहारै वें अप संस्कृति, संस्कृति केॅ दूध पिलाबै वें;
भूलेॅ भलें सुरूज तपना, पर नारी नै भूलै अपमान।।
सुचेता
भोमें देखलकै श्यामा के रूप अपूर्व प्रखर द्युतिमान,
ललछाहा उठलॅ नख-एँड़ी तक खिललॅ सब एक समान।
अनचोके फुललै छाती दूना-तिगुना उत्साहॅ मे;
छन में हाथ उठाय ईशारा देलके राखै के प्रन-मान।।
युद्ध-शिविर में देश-देश सें जुटलै वीरॅ के समुदाय,
द्रुपद विराट युधिष्ठिर साथें धृष्टदुम्न आरो सब भाय।
निश्चित विजय बनाबै लेली युद्धॅ के मंसूबा पर;
डुबलै सभे विचार-विमर्शॅ में खोज में सबल उपाय।।
अपना-अपनी सेना-दल केॅ सुगठित सुपट बनबै के,
आग्रह होलै सब नायक से क्रम में वीर सजाबै के।
सेनापति के भार धरैलै दु्रपद कुमारॅ कान्हा पर;
कमे समय में कुरूक्षेत्र दिश सेना कूच कराबै के।।
अर्जुन के कान्हा पर राखी कृष्णे ने नेहॅ के हाथ,
शिविरॅ के एकान्त कोन में लै केॅ गेलै अपना साथ।
लागी गेलै वीर सभे अपना-अपनी तैयारी में,
निर्यात गढ़ै में कथा, फाल्गुनी सूनै में कृष्णॅ के बात।
”दुश्मन केॅ आगिन केॅ रिन केॅ छोटॅ नै मानै के,
आय जरूरत प्रतिपक्षी वीरॅ केॅ पहचानै के।
स्वप्न-स्वाप-जागरण काल में समरस तेज-निधान;
एक पुरुष छै कोरव-दल में, ई रहस्य जाने के।।
तप ही तप के काट, कटै छै होरा सें ही होरा,
योग योग में, बल प्रतिबल सै ही सहमै छै मोरा।
ई सब सोची एक बेर फेरू सें तप करना छौं;
महासमर के सूत्रधार! जों जयमाला वरना छौं।।
अंगदेश में बड़ी सुहावन पावन मन्द्राचल छै,
विजय दायिनी माँ दुर्गा के आसन जहाँ अचल छै।
अर्जुन! जाय गुहारॅ मैया केॅ पाबॅ वरदान;
मिलै वहाँ परित्राण, भक्ति भावॅ सें जे विह्वल छ।।
बिना कृपा मैया के जागै स्पन्दन नै परती में,
निपट ठहरलॅ काल, असम्भव इच्छा काम-रती में।
सब कुछ जड़वत सुन्न अकारथ अन्तहीन विस्तार;
सागर लहर-तरंग अलोपित, जीवन नै धरती में।।
महाशक्ति के आगर मैया, सागर सभै गुनें के,
शरणागत वत्सला, मर्दिनीं असुर भाव निपुनॅ के।
भवभय हारिनीं दुर्गमपथ केॅ करै सुगम औसान;
पूजै जें चितलाय जरूरे पूरै आस मनॅ के।।
आठ अस्त्र अठभुजा विराजै मन्दर-रम्य शिखर पर,
चम्पा नगरी सें दक्षिण दिश मात्र चार योजन पर।
बूझी जैभौ गंगा-तीरॅ सें दर्शन पाबी केॅ;
बनलॅ रहै मथानी जे संस्कृति-समुद्र मंथन पर।।
देव-असुर के करनी सें प्रगटलै विष के ज्वाला,
हाहाकार लोक में भरलै मचलै महा बबेला।
नीलकंठ शिव-शकर बनलै, पीबी विष के खान;
शमन करलकै, जन-संस्कृति में लक्दक सुखद उजाला।।
फल वहेॅ विष सुलगी रहलॅ छै समाज कण-कण में,
एक महल संकल्प हरस स जगथौं तोरा मन में।
तीर्थभूमि हौ, रग-रग में भरथौं श्रद्धा-विश्वास;
अक्षय कोष शक्ति के अनुगत तप सिद्धी के छन में।।“
कृष्णॅ के संकेत बुझो गेलै अर्जुन मन्द्राचल,
भक्ति भाव सें मया के गोड़ं पर चित्त अचंचल।
बैठो गेलै बीरासन में द केॅ दण्ड-प्रणाम,
धूप-दीप नैवेद्य आरती साथें नील कमल-दल।।
”जय दुर्गे! मन्द्राचल वासिन!
मधुसूदन माया शरणागत-
गति अभया वरदा छारम पत।
धक् धक् आगिन नयन विभाषित
मधुकटभ खल-मदबल जारि!
अट्टहास आकाश विलाड़ित,
गदा त्रिशूल धनुवाण खड़्ग युत्।
शैल सवासिन सिंहवाहिनी;
दानव-दुर्गम दुर्ग विदारिन।।
खल-खल हासिन मुख छवि श्यामा,
नखत प्रकाशित पशुपति वामा।
त्रिपुर सुन्दरी रूप अनिन्दित;
अमरित धारिन! चन्द्र कपारिन।।
ब्रह्मा विष्णु देवगण वन्दित,
त्रिभुवन शक्ति-थमाल अपरि मत।
अशरण-शरण निरीह-सत्सला;
विजय दायिनी शक्ति विधायिन!
ऐलौं शरण शक्ति द माता,
असुर-विनाशक, सुर-परित्राता।
बन्दौं बारंबार कमल पद;
न्याय पक्ष, अन्याय विनाशिन!“
विनती परें कमल-दल अर्पण,
धूप-दीप नैवैद्य समर्पण
सदका तिल मधु में बोरी केॅ
नाम बतीसी माला साथें
एक लाख के हवन करलक
पुरश्चरण में तीस हजार
बहिना! कुन्ती के बेटा ने
विधि-विधान सें पूर्ण करलकै
दुर्गा-पूजन के आचार।
”जखनी-जखनी मानव-संस्कृति पर आबे व्यवधान,
दानवता सें पीड़ित माँग छै वं ने परित्राण।
तखनी-तखनी कोय रूप में शक्ति-संचरण हमरॅ;
प्रतिबल बनी मिटाबै छै असुरॅ के नाम-निशान।“
-ध्वनि साथ माता के देहॅ सें विद्युत के रेख,
जाय समैलै अर्जुन के प्राणॅ में शक्ति अशेष।
खँसलै गल्ला पर हाथॅ सें नील कमल के हार;
हौलकॅ होलै देह नशैलै सबटा मन के भार।
जेना सबल करै टकुआ सें कच्चा सूतॅ औंटी,
आरी सुपट सुहील बनाबै छै मूँजॅ सें सोंटी।
वहिना व्रत उपचारित अर्जुन आत्मतेज सें दप-दप;
सैन्य-शिविर उपलव्य नगर में वापस ऐलै लौटा।।
अक्षौहिनी सात चतुरंगी कुरूक्षेत्र दिश चललै,
धरतो आ आकाश तुमुल मिलजुमला रव सें भरलै।
तुरही भेरी शंख बजे टलटल उत्साहें बीर;
पिपरी-टिड्डी-दल नाखीं चरो दिश सभे पसरलै।।