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सोहत मग मुनि सँग दोउ भाई / तुलसीदास

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राग कान्हरा

सोहत मग मुनि सँग दोउ भाई |
तरुन तमाल चारु चम्पक-छबि कबि-सुभाय कहि जाई ||
भूषन बसन अनुहरत अंगनि, उमगति सुन्दरताई |
बदन मनोज सरोज लोचननि रही है लुभाइ लुनाई ||
अंसनि धनु, सर कर-कमलनि, कटि कसे हैं निखङ्ग बनाई |
सकल भुवन सोभा सरबस लघु लागति निरखि निकाई ||
महि मृदु पथ, घन छाँह, सुमन सुर बरष, पवन सुखदाई |
जल-थल-रुह फल, फूल, सलिल सब करत प्रेम पहुनाई ||
सकुच सभीत बिनीत साथ गुरु बोलनि-चलनि सुहाई |
खग-मृग-चित्र बिलोकत बिच-बिच, लसति ललित लरिकाई ||
बिद्या दई जानि बिद्यानिधि, बिद्यहु लही बड़ाई |
ख्याल दली ताडुका, देखि ऋषि देत असीस अघाई ||
बूझत प्रभु सुरसरि-प्रसङ्ग कहि निज कुल कथा सुनाई |
गाधिसुवन-सनेह-सुख-सम्पति उर-आश्रम न समाई ||
बनबासी बटु, जती, जोगि-जन साधु-सिद्ध-समुदाई |
पूजत पेखि प्रीति पुलकत तनु नयन लाभ लुटि पाई ||
मख राख्यो खलदल दलि भुजबल, बाजत बिबुध बधाई |
नित पथ-चरित-सहित तुलसी-चित बसत लखन रघुराई ||