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सौदा / पूजानन्द नेमा
Kavita Kosh से
बाप-दादे
घिसे हुए सिक्कों के
मिटते हर्फों को टो-टोकर
अपनी सारी पूँजी
पुराने लोटे में जोगा-जोगाकर
चूल्हे के नीचे गाड़ते रहे
और महीने दो-महीने बाद
अपने हाथ के खालीपन को भरने के लिए
घर का चूल्हा उखाड़ते भी रहे ।
कोई नया सुनहरा सिक्का मिल जाता
तो उसे गिन्नी की तरह जोगा लेते थे
इस विचार से कि लोटे में बरकत हो
और बरकत तो यूँ भी होती रही
क्योंकि गुलामी के उन दिनों में
खरीदने लायक कोई चीज़ ही न हुआ करती थी
सिवाय गुलाम के ।
और उन दिनों
कोई गुलाम गुलाम नहीं खरीदता था
क्योंकि सभी गुलाम एक-परिवार थे
और हर गुलाम जानता था
दुःख-दर्द गुलामी का ।
किंतु आज……!
गाँठ में दो पैसे का आ जाना काफी हो गया है
पूरे इतिहास को भूलकर
किसी अपने ही को गुलाम बना जाने के लिए ।