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स्तालिन के उत्तराधिकारी / येव्गेनी येव्तुशेंको / मदन केशरी

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मौन था संगमरमर, मौन चमक रहा था काँच.
पहरे पर खड़ा सन्तरी मौन था,
सर्द हवा में जड़, जैसे कि काँसे की कोई मूर्ति ।
लेकिन तभी ताबूत से धुएँ का एक प्रेत उठा ।
दरारों से निकल बिखरी एक गर्म सांस,
जब मक़बरे के दरवाज़ों से बाहर उन्होंने निकाला उसका ताबूत ।
ताबूत धीरे से हिला, संगीनों से रगड़ खाए उसके कोने ।
वह भी मौन था — मगर उसके मौन में गूँज रही थी एक भयावहता,
अपनी लेप लगी मुट्ठियाँ भींचता
अन्दर एक व्यक्ति दरारों से झाँक रहा था ।
मरने का स्वाँग करता,
वह याद कराना चाहता था सबके चेहरे ।
उन सबके जो उसे दफ़ना रहे थे :
रिज़ान तथा कूर्स्क के जवान लड़के, गँवई रंगरूट,
ताकि एक दिन, एक आकस्मिक आक्रमण के लिए
वह अपनी पूरी शक्ति इकट्ठा करें
और ज़मीन की परतों से निकल,
क़हर बन टूट पड़े उन मूढ़ गँवारों पर ।
उसने सोच रखी है कोई चाल,
एक हल्की नींद ले, वह अपने को बस तर-ओ-ताज़ा कर रहा है ।

और मैं अपनी सरकार से एक आग्रह करता हूँ, एक प्रार्थना
कि स्तालिन की क़ब्र पर प्रहरियों की संख्या
बढ़ाकर कर दी जाए दुगनी-तिगुनी,
ताकि स्तालिन कभी न बाहर आ सके अपनी क़ब्र से,
और न उसके साथ बाहर आ सके बीता हुआ काल.
जब मैं कहता हूँ ‘बीता हुआ काल’, तो मेरा अर्थ उस अध्याय से नहीं
जो शौर्य-गाथाओं से भरा है और जो विरासत है हमारी :
ट्रांससीब, मग्नीतका, बर्लिन के ऊपर लहराती पताका ।
मेरा मतलब है एक बिलकुल भिन्न अतीत से,
जो रचा गया झूठे अभियोगों, निर्दोषों की जेल-यंत्रणा
और लोगों की उपेक्षा से ।

हमने पूरी निष्ठा से बीज बोए,
पूरी निष्ठा से पिघलाया भट्ठियों में धातु,
और आगे क़दम बढ़ाते दायित्व के साथ निभाया सैनिक का कर्तव्य.
फिर भी वह हमसे सशंकित रहा ।
एक विराट लक्ष्य में अपनी अटूट आस्था के साथ,
वह चूक गया इस तथ्य में
कि साध्य की महानता के ही अनुरूप अपेक्षित है साधन भी ।
वह दूरद्रष्टा था, राजनीतिक संघर्ष में दक्ष ।
उसने फैला रखे हैं पूरी पृथ्वी पर अपने उत्तराधिका ।.
मुझे ऐसा महसूस हो रहा है
कि ताबूत से जुड़ा है एक टेलीफ़ोन :
अनवर होक्ज़ा जैसे लोग अभी भी पाते हैं स्तालिन के कार्यादेश.
इस ताबूत से कितनी दूर तक अभी भी फैला है टेलीफोन का तार?
नहीं, स्तालिन हारा नहीं है,
अनगिनत तरीके हैं मृत्यु से निबटने के, वह सोचता है.

मक़बरे से जिस शव को हमने बाहर निकाला,
क्या वह निस्संदेह स्तालिन न था?
मगर कैसे निकालें बाहर उस स्तालिन को
जो जीवित है अपने उत्तराधिकारियों के भीतर?
उसके कुछ अवकाश प्राप्त उत्तराधिकारी तराशते हैं गुलाबों की टहनियाँ,
मगर, उन्हें अंदर पूरा विश्वास है
कि यह अवकाश है महज़ कुछ समय के लिए.
दिन के वक़्त कुछ सबसे बढ़-चढ़कर देते हैं
माइक्रोफोन पर स्तालिन को गालियाँ,
मगर रात में उतरती है उनके भीतर
उन्हीं बीती क्रूर कथाओं के लिये लिप्सा.
यह महज़ संयोग की बात नहीं
कि स्तालिन के उत्तराधिकारियों को आने लगा है अब हृदयघात,
जो उसके आधार स्तम्भ थे, उनके लिए सचमुच वे दिन भयानक हैं
जब श्रम-शिविर वीरान हों,
और वे क्षण इतिहास पर धब्बे,
जब सभागार भरा हो कविता के उत्सुक श्रोताओं से.

पार्टी ने मुझे समझाया है
कि मानसिक युद्ध से मैं कभी विलग न होऊँ.
यदि कोई दुहराता है कि ‘संघर्ष समाप्त हो गया’,
मैं नहीं समझ पाता कि अपनी बेचैनी से कैसे पाऊँ मुक्ति.
जब तक रात में सुनाई पड़ती है
स्तालिन के उत्तराधिकारियों के चलने की आहट,
मैं महसूस करता हूँ कि स्तालिन जीवित है
अपने मक़बरे में ।

1961

सन्दर्भ :

(1) रिज़ान और कूर्स्क : रूस के दो प्रमुख शहर ।

(2) ट्रांससीब : 1926-1931 के बीच साइबेरिया के आर-पार बनाया गया 1,520 कि. मी. लम्बा रेलमार्ग, जो रूस के यूरोपीय हिस्से को साइबेरिया से जोड़ता है, स्तालिन-काल की एक महत्वपूर्ण परियोजना ।

(3) मग्नीतका: व्लदीमिर ईल्यिच लेनिन इस्पात संयंत्र, मग्नीतागोर्स्क, जो आम तौर पर ‘मग्नीतका’ के नाम से जाना जाता है ।

(4) अनवर हलील होक्ज़ा (1908-1985): द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात उभरकर आये अल्बानिया के कम्युनिस्ट नेता, संशोधनवादी शक्तियों के विरुद्ध कठोरता की नीति उनके नेतृत्व की चारित्रिक विशिष्टता रही ।

अनुवादक की टिप्पणी :

कविता एक से अधिक अंग्रेज़ी अनुवादों पर आधारित है, ताकि कविता की अन्तर-वस्तु अपने मूल अर्थ और सन्दर्भ के अधिक से अधिक समीप रहे. दो भाषाओं की अलग चरित्र-विशिष्टता के कारण कहीं-कहीं काव्य-अभिव्यक्ति बदल दी गई हैं ।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : मदन केशरी

लीजिए, अब यही कविता अँग्रेज़ी अनुवाद में पढ़िए, जो मूल रूसी कविता से काफ़ी भिन्न है ।

      Yevgeny Yevtushenko
         STALIN’S HEIRS

The marble was silent.
The glass glistened silently.
The guards stood silent,
Bronzing in the sun.
But the coffin gave off a faint vapor.
Breath leaked through a crack
When they took it through the Mausoleum doors.
The coffin slowly floated past,
Its corners touching the bayonets.
He too was silent too! –
But frighteningly silent.
Sullenly clenching
Embalmed fists,
inside, the man pretending death
Pressed against the crack.
He wanted to remember all those
Who were carrying him out:
Young Ryazan and Kursk recruits, So that afterward somehow
He might gather the strength for a sally
And rise from the earth
And get at these rash persons.
He had thought of something.
He had merely nestled down for a rest.
And I appeal to our government
With the request
To double,
To triple
The guard at this slab
So that Stalin may not rise,
And, with Stalin,
the past.
I am not speaking of that treasured, valorous past Which was Transsib,
Magnitka
And the flag over Berlin.
Here
I mean by the past
The ignoring of the people’s welfare,
The calumnies,
The arrests of the innocent.
We sowed honestly.
We poured steel honestly
And we marched honestly,
Lining up in soldiers’ ranks.
But he feared us.
Believing in a great goal, he did not believe
That the means
Should be worthy of the great goal.
He was farsighted.
Skilled in the laws of battle,
He left many heirs on the face of the globe.
I dream
that a telephone has been placed in the coffin:
Stalin sends his instructions
to Enver Hoxha.
Where else does the line from the coffin run?
No-Stalin has not given up.
He considers death remediable.
We rooted him
out of the Mausoleum.
But how to root Stalin
out of Stalin’s heirs?!
Some of the heirs snip roses in retirement
and secretly consider the retirement temporary.
Others
even condemn Stalin from the platform,
But themselves
at night pine for the old days.
Evidently not for nothing do Stalin’s heirs today
suffer heart attacks.
They, once his lieutenants,
do not like these times
When the camps are empty
And the halls where people listen to poetry Are crowded.
The Party
ordered me not to be quiet.
Let some repeat over and over:
“Relax! “–I cannot be calm.
As long as Stalin’s heirs exist on earth
It will seem to me
that Stalin is still in the Mausoleum.

1961

लीजिए, अब यही कविता मूल रूसी भाषा में पढ़िए
            Евгения Евтушенко
           Наследники Сталина

Безмолвствовал мрамор. Безмолвно мерцало стекло.
Безмолвно стоял караул, на ветру бронзовея.
А гроб чуть дымился. Дыханье из гроба текло,
когда выносили его из дверей мавзолея.

Гроб медленно плыл, задевая краями штыки.
Он тоже безмолвным был — тоже! — но грозно безмолвным.
Угрюмо сжимая набальзамированные кулаки,
в нём к щели глазами приник человек, притворившийся мёртвым.

Хотел он запомнить всех тех, кто его выносил, —
рязанских и курских молоденьких новобранцев,
чтоб как-нибудь после набраться для вылазки сил,
и встать из земли, и до них, неразумных, добраться.

Он что-то задумал. Он лишь отдохнуть прикорнул.
И я обращаюсь к правительству нашему с просьбою:
удвоить, утроить у этой стены караул,
чтоб Сталин не встал и со Сталиным — прошлое.

Мы сеяли честно. Мы честно варили металл,
и честно шагали мы, строясь в солдатские цепи.
А он нас боялся. Он, веря в великую цель, не считал,
что средства должны быть достойны величия цели.

Он был дальновиден. В законах борьбы умудрён,
наследников многих на шаре земном он оставил.
Мне чудится будто поставлен в гробу телефон.
Кому-то опять сообщает свои указания Сталин.

Куда ещё тянется провод из гроба того?
Нет, Сталин не умер. Считает он смерть поправимостью.
Мы вынесли из мавзолея его.
Но как из наследников Сталина — Сталина вынести?

Иные наследники розы в отставке стригут,
но втайне считают, что временна эта отставка.
Иные и Сталина даже ругают с трибун,
а сами ночами тоскуют о времени старом.

Наследников Сталина, видно, сегодня не зря
хватают инфаркты. Им, бывшим когда-то опорами,
не нравится время, в котором пусты лагеря,
а залы, где слушают люди стихи, переполнены.

Велела не быть успокоенным Родина мне.
Пусть мне говорят: «Успокойся…» — спокойным я быть не сумею.
Покуда наследники Сталина живы ещё на земле,
мне будет казаться, что Сталин — ещё в мавзолее.

1961 г.