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स्त्री हूँ मैं / पूनम गुजरानी

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कभी पुरुष
कभी समाज
कभी सोच
कभी मर्यादा
देते हैं मुझे धक्का
पेङ की
पतली टहनी से
पर मैं...
गिरने से पहले
सीख जाती हूँ उङना
अनंत आसमान में
जहाँ ख्वाहिशों के
सतरंगी रंग
सजते हैं
मेरी रंगोली में
आंचल में मचलती है
किलकारियाँ
क्यों कि स्त्री हूँ मैं
गिरना स्वभाव नहीं मेरा
मैं जानती हूँ
सूखे तिनकों से
घोंसला बनाने का हुनर।