भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
स्त्री – छह / राकेश रेणु
Kavita Kosh से
मैं स्त्री होना चाहता हूँ ।
वह दुख समझना चाहता हूँ
जो उठाती हैं स्त्रियाँ
उनके प्रेमपगे आस्वाद को किरकिरा करने वाली
जानना चाहता हूँ ।
जनम से लेकर मृत्यु तक
हलाहल पीना चाहता हूँ
प्रताड़णा और अपमान का
जो वो पीती हैं ताउम्र ।
महसूसना चाहता हूँ
नर और मादा के बीच में भेद के
काँटे की चुभन ।
नज़रों का चाकू कैसे बेधता है
कैसे जलाती है
लपलपाती जीभ की ज्वाला
स्त्रीमन की उपेक्षा की पुरुषवादी प्रवृत्ति
मैं स्त्री होना चाहता हूँ ।
उनकी सतत मुस्कुराहट
पनीली आँखों
कोमल तन्तुओं का रचाव
और उत्स समझना चाहता हूँ ।
मैं स्त्री होना चाहता हूँ ।