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स्त्री – तीन / राकेश रेणु
Kavita Kosh से
वे जो महुए के फूल बीन रही थीं
फूल हरसिंगार के
प्रेम में निमग्न थीं ।
वे जो गोबर पाथ रही थीं
वे जो रोटी सेंक रही थीं
वे जो बिटियों को स्कूल भेज रही थीं
सब प्रेम में निमग्न थीं ।
वे जो चुने हुए फूल एक-एक कर
पिरो रही थीं माला में
अर्पित कर रही थीं
उन्हें अपने आराध्य को
प्रेम में निमग्न थीं ।
स्त्रियाँ जो थीं, जहाँ थीं
प्रेम में निमग्न थीं ।
उन्होंने जो किया —
जब भी जैसे भी
प्रेम में निमग्न रहकर किया
स्त्रियों से बचा रहा प्रेम पृथ्वी पर ।
प्रेममय जो है
स्त्रियों ने रचा ।