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स्त्रीवाची सूर्य / मुक्ता
Kavita Kosh से
वह औरत कभी शामिल नहीं की गई उत्सवों में, ऋचाओं में
वहाँ हो रही थी संगठित और मजबूत होने की बड़ी-बड़ी तैयारियाँ
वह औरत कहीं भी शामिल नहीं थी उन आयोजनों में
वह औरत कभी कोई गीत नहीं गुनगुना पाई आजादी के
सुबह सवेरे उसके चेहरे पर होती है अनोखी चमक
जिसका संबंध सूरज से नहीं उसके अपने श्रम से है
पृथ्वी उसकी उँगलियों से सीखती है ककहरा
साहित्य और कला के तमाम अनुशाशनों में उस औरत के मांसल चित्र हैं
उसके हाथों में उगे होते हैं नागफनी, इन चित्रों में रंग भरते हुए
वह औरत उलटती है ऐसे सभी चित्रों को
उसकी गर्वीली हँसी भेजती हैं लानतें गुलाम नायिकाओं पर
वह औरत बढ़ रही है नए संशब्द की ओर
वह खोल सकती है ब्रह्मांड के अर्थ
उसके माथे पर दमकने लगा है स्त्रीवाची सूर्य