स्नायुघात / कैलाश वाजपेयी
कहीं भी गए बिना
कहे बिना कुछ भी
लगातार-
मैं मर रहा हूँ
मर रहा है एक -संसार !
सब तरफ़ गिलहरियाँ
मुँह खोले अकड़ी पड़ी है
दुनिया
असंपृक्त
होने के बाद
घड़ी लगती है
टिक-टिक करती हुई
मुर्दा कलाई पर !
क्या छूट गया—
टूट, नया क्या बना-
मुझे रहा नहीं झींखना-
सब सपाट कर जाने वाली शताब्दी में
सोचना न सोचना-
क्या माने रखता है
करोड़ों सालों से
अरबों लोगों को
दिए गए धोखे
बंद हैं दिमाग़ में
एक बार पानी में
एक बार आग में
पैर देने के बाद जैसा होता है
मुझमें कुछ वैसा-वैसा होता है
नमक का दर्द नमक जाने
मैं उऋण हूँ
अँधेरे उजाले की भाषा में
उँगली के पोरों तक जड़ हूँ
नहीं किसी और के गुनाह की
क्षमा माँगनी है मुझे
पिछले इरादों की
मूर्ख आह की !
खून की सनसन के नीचे निस्तेज बियाबान है
और अकेला होते जाने के दौर में
देखा है मैंने
माथे की खोखल में स्याह आग है।
नहींऽ
एक भीतर घुसता बर्मीनुमा पथरीला झाग है।
वहाँ कुछ घटता नहीं
सिर्फ़ कुछ रुकता चला जाता है
बिना किसी दिक़्क़त के
एक लाल चाकू
गोल गोल घूमकर
घुसता चला जाता है!
सब नफ़रत करते हैं
डरते हैं भीतर के
क़ब्रिस्तान से
जबकि बेझिझक मैं
इस पीली खोह में पड़ा हुआ-
दिन गिन रहा हूँ थकान के !
कोई नहीं जानता
कबूतर की बंद आँख को
कौन सा प्रकाश दीख पड़ता है
किसके कहने से
ख़रगोश सा नरम जीव
बाँधकर क़तार
डूब मरता है
मैं मर रही बंद आँख हूँ
लगातार-
साथ-साथ मेरे
मर रहा है
एक संसार !
मुझमें लिपटे हुए साँप ने
कभी मुझे बूढ़े पिता के विषय में बताया था-
तब मैं अबोध था
फिर भी हँस आया था।
फिर वर्षों भीतर
बहसें चलती रहीं
हर शाम फोड़ों की तरह मुझे चीरकर
कविताएँ निकलती रहीं !
मुझे लगा 'वह' शायद क्षोभ है
या शायद
शानदार ढोंग
मुझे लगा अपने 'न होने' या 'होने' में
सब तरह 'वह बुड्ढा '
स्थायी रोग है !
हुआ करे ?
तुड़ा-मुड़ा ढाँचा तक रहा न जब बुद्ध का
चीख़ तक दफ़न हो गई उस 'पागल' की
कुछ भी हुआ करे
दुनिया अब बहुत बुद्धिमान है
ख़ून की सनसन के नीचे
सिर्फ़ बियाबान है !
नीले इरादों की नींद फटी रात में
सब इसी तरह डूब जाते हैं
पहले उफनता है हर समुद्र
फिर औंधे शंख
छिछियाती चट्टानें
घोंघों के खोल
हड्डी के टुकड़े रह जाते हैं।
भारी पग हवा सर पटकती है
फिर कुछ गिद्ध उतर आते हैं।
अक्सर इस निजी अंधकार से
घबराकर
मैं भी
चीखा हूँ।
ईश्वर
कुत्ता
कीड़ा-
अपने को एक साथ सब ग़लत दीखा हूँ ।
फिर भी नहीं गिला
क्या हुआ ? अगर मुझे दुनिया में
आदमी नहीं मिला !
क्यों मिले मरा हुआ आदमी ?
देश युद्ध करते हैं
तब, जबकि बहुत कुछ हो सकता है करने को
देश युद्ध करते हैं
कमर टूट जाने के बाद
संधि-पत्र पर
करके हस्ताक्षर
फिर ख़ाली नलियों में बारूद भरते हैं।
यही हो रहा है
सौ साल से
ना-हज़ार साल से
दस हज़ार साल से !
मगर प्यार भी लोग क्यों करें
जब हर दिमाग़ एक चकला है
हर दिल में एक मेंढक
हर पेट फूटा तसला है !
इस सबके बाद भी,
लोगों को आख़िर
कहीं न कहीं जाना है
सबके अपने अपने पेशे हैं।
पेशों से जुड़े
बेहिसाब
अंदेशे हैं !
हर शीशे में कहीं ख़राश है
सबको इस बेहिसाब फैले समुद्र में
किसी गुमनाम
कर्णधार की तलाश है !
काश! मुझे भी कोई भय बाक़ी रहता
मैं भी बर्राता कुछ
इस युग चढ़े सन्निपात में
हाथ में छड़ी लिए हुए
समझता
ज़रूरी हूं
हलकान रात में !
लेकिन अब सब मर चुका है
नाक की जगह एक बाँस की खपाच है।
शब्द सिर्फ़ भौंक या मिमियाहट लगते हैं
छपे हुए नाम में
गुबरैला दिखता है
देह-जैसे लोग किराए के तंबू में रहते हैं।
फिर भी
अफ़सोस नहीं होता,
लगता नहीं, मैंने भी
हिस्सा लिया है
चूहा -बिल्ली के खेल में
नहीं शिकायत
कोई और
किसी और का
गोश्त नोंचकर
मुझे
फेंक गया
इस निभीत जेल में !
अब सब अतिप्रश्नों से दूर चला आया हूँ
कोई और कुरेदे
इससे पहले ही
मैं अपना साँप दबा आया हूँ !
यों हक़ नहीं मुझे
कहने का
मगर विवशता में भी एक न्याय होता है।
जैसे-एक अंधापन
कौंध में
या जैसे
प्रेम में गुँथा हुआ नंगापन
उसी बहाने मैं भी कहता हूँ
कोई भी स्थिति अब
बदतर नहीं रही
(सुंदर का प्रश्न कहाँ ?)
क्योंकि कोई परिणति रुचिकर नहीं रही !
उसी बहाने मैं भी कहता हूँ
सबको शिकायत है
उस दुर्विनीत नरपिशाच से
जो हर विचार
हर व्यवस्था
संस्थान की
जड़ें चाटकर
अब अप्राप्य है
आसमान में भटकती टिटिहरी के
चोंच झरे फेन सा,
दिखता तो है जो
क्लिन्न फफूँद सा,
पर जिसका कारण
ग़ायब है ग्लोब से !
सबको शिकायत है मुझे नहीं
मैं जानता हूँ
वह सर्वसोख प्रेत
बाहर कहीं नहीं
भीतर हम सबके साथ है
दुनिया को बदसूरत करने में
शायद हम सबका
लगातार हाथ है
फिर भी मन करता है
हँसी आए
(आँसू तो स्नायविक क्रिया है)
फिर रोना, चिल्लाना
भौंचक्कापन
यों भी पुराना है
जबकि
सभ्यता का अर्थ हर अगले पल
नई तरह
ऊबना उबाना है।
इसीलिए
मरने तक
मैं चाहता हूँ मुझे हँसी आए
जिस तरह मुंड
चुप अट्टहास करता सा लगता है
मैं कोशिश करता हूँ
किसी तरह
मेरा तन
जड़ - खुला दाँत बन जाए
लेकिन जो लाश
दलदल में डूबी हो
वह भला
क्योंकर उतराए !