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स्नेह, सृजन और / प्रताप सहगल

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जब से तुम्हारी आंखों के स्नेह ने मुझे बांधा है
तब से सिवाय चित्र बनाने के मैं सब भूल गया हूं
तुम्हारी आंखों में तैरते समुद्र
अपने में समेट लेना चाहता हूं
न जाने तब क्यों मैं किसी अज्ञात भय से
पक्षी-शावक सा अन्दर से काँप जाता हूं
और अपने बनाए हुए सभी चित्र
हर कोने से बटोर कर समेट लेता हूं
तभी स्नेह सागर की तरंग मुझे छू लेती है
और मैं निश्चिन्त सा
एक-एक चित्र बिखेर देता हूं
सृजन के क्षण फिर लौट आते हैं.