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स्नेह की देह में / शीला तिवारी

स्नेह की देह में
मातृत्व रस से नहायी ज़िंदगी
पहली बार 'माँ' शब्द
शिशु के जन्म के साथ पनपी
ऐसा शब्द गढ़ गया पल
जिस पर नत मस्तक सारा जहान
हर कर्ज से भारी मातृ ऋण
उऋण होना मुश्किल
इस पद को पाकर मैं 'माँ' कहलाई
पर 'दायित्व' के पहाड़ ने भी तुरंत जन्म ले लिया
यह बोझ उमर के साथ बढ़ते रही पौधे से वृक्ष के भाँति
मन में ममता का सागर भर गया
आँचल मातृत्व से सराबोर हो गया
सुबह की सुनहली किरणों सी मनुहारी
शबनम की मोती सदृश
झरने से बहती स्नेह की धारा
जैसे मानों आकाश ने चाँद को पा लिया
मेघों ने बूँदो को मोती में ढाल, बरसा दिया हो मुझपर
चूमती शिशु को
बेटी है या बेटा
प्रकृति से कोई छेड़छाड़ नहीं
कोई मुझे सरोकार नहीं
मैं शिशु को अपने गोद में लिए
झूलती अमलतास के प्रेमिल फूलों सी
फेनिल दरिया सा मन अब स्थिरता को बाँधने लगा
मानों अचानक मेरा वजन एक
आम से लदे वृक्ष के समान हो गया
हर पल मेरे मन की डालें झूमती प्यार से
कभी आँखो को देखती शिशु की
कभी नन्हे कोमल हाथों को, कभी खूबसूरत पैरों को
अचानक एक फिकर नन्हीं सी जान की
सब कुछ निछावर दिन-रात, हर पल,हर सपना
सरसों के फूलों-सी कोमल
जब रोती चेहरा लाल हो जाता, मेरे अंदर अजीब सिहरन होती
दुनिया की हर खुशी सोचती उसको सीने से लगाते
मन में सुंदर स्पंदन
जवानी पकने लगी माया के संसार में
मस्तिष्क में स्निग्धता की धारा बहती
हमेशा शिशु की फिकर
स्नेह की देह में नहायी ज़िंदगी।