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स्मृति / अज्ञेय
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नये बादल में तेरी याद!
आदिम प्रेयसि! किसी समय जीवन के उजड़े कानन में-
विस्तृत, आशा-हीन गगन में किसी अजाने ही क्षण में;
आशा-अभिलाषा की तप्त उसाँसों से हो पुंजीभूत-
तू अकाल-घन-सी आयी थी बन वसन्त का जीवन-दूत!
नयी बूँदों में तेरा प्यार!
अन्तिम प्रणयिनि! बूँद-बूँद मैं सींच रहा हूँ तेरा नाम :
सदा नये हैं मेरे आँसू उन का पावस है अविराम!
इस अनन्त के अचिर जाल में अभिनव कौन, कौन प्राचीन-
मैं हूँ, तेरी स्मृति है, और विरह-रजनी है सीमा-हीन!
लाहौर, 26 मार्च, 1935