भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

स्मृति बची है, मित्र / सुरेश सलिल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उभर-उभरकर आ रहे हैं
मन में अनगिन चित्र
बतलाना मुश्किल बहुत
कैसे हैं वे, मित्र !

उनमें है नदी की कलकल
चाँदी-सी लहरों की झलमल
कौंध और नावों का नर्तन
जल पर पालों का आवर्तन

हुए स्वप्नवत् आजकल
वे सब के सब चित्र
नदी भूमिगत हो गई
स्मृति बची है, मित्र !