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स्मृतियाँ(रावण का पौरोहित्य) / प्रतिभा सक्सेना

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मै असम्पृक्त सी आज यहाँ बैठी हूँ, अपने अतीत का करने विहँगावलोकन,
कितना अवांछित, विषम और एकाकी, कितना अवास्तविक-सा यह मेरा जीवन!
पतझर के पातों से अतीत के पन्ने, बिखरे उडते मन के सूने आँगन में,
कितनी यादें तैरती चली आती हैं, वर्षा के मेघों जैसी स्मृति -गगन में!

मन भटक-भटक जाता अतीत में खोया, फिर वर्तमान से बिल्कुल ही कट जाता
लव -कुश के रोने की ध्वनि चेत जगाती, नियमित क्रम में फिर से जीवन लग जाता!
स्मृति में आती बर-बार वह घटना सीता के मन को रँग देती रंगों में,
फिर उसी काल में पहुँच वही पल जी ले, वैसी ही पुलकन भर जाये अंगों में!"

जीवन के सुन्दरतम पल पाए थे जिस दिन, वह स्मृति अब भी भरती प्राणों में पुलकन,
राघव ने दक्षिण सागर के तट पर जब, रामेश्वर-स्थापन हेतु किया आयोजन।
लंकेश्वर पितु ने कहा, तुरत सज्जित हो... सीते, चल मेरे साथ सिन्धु के तट पर,
शिव के स्थापन का संकल्प हृदय में, ले चिन्ता से व्याकुल बैठा तेरा वर!

उसके चर घूम रहे वन-ग्राम-पुरों में खोजते यज्ञ के हेतु पुरोहित-पंडित,
कर रहे प्रतीक्षा, बैठ सिन्धु के तट पर, किस तरह पुरे आयोजन वह अति विचलित!
हो कौन पुरोहित, सहधर्मिणि से वंचित, किस तरह वहाँ पूरा कर पाएगा व्रत,
मैं बाधा-विघ्न दूर कर दूँगा सारे, क्यों शुभ कार्यों में आए कोई संकट?

 एकाकी राम उदास निकट वेदी के, मुख पर छाए चिन्ता के गहरे बादल!
लक्ष्मण तत्पर हो आज्ञा हेतु खड़े थे, सुग्रीव, पवनसुत जामवन्त लेकर दल!
लंकापति वायु वेग से रथ चालित कर, नीचे उतरा वैदेही को आगे कर,
"लो राम, करो संपन्न कार्य तुम अपना, आओ, सुशान्त होकर बैठो वेदी पर!"

पूजन-उपचार सहित दशमुख जा बैठा, सीता को राम समीप सप्रेम बिठाया,
उन शान्ति-मंत्र और सद्भावों का मंगल आशीर्वाद सा उठ अंबर पर छाया!
वेदी पर पति के साथ जानकी शोभित, आसीन पुरोहित के आसन दशकंधर,
पढ़ते थे मंत्र पिता, आहुतियाँ देते, स्वाहा-स्वाहा कर सिया राम के दो कर!

थम जाय काल बस यहीं, न बीते पल भी रुक जायँ यहीं जीवन के सुन्दरतम क्षण,
पति और पिता के साथ सार्थक कर लूँ, जो रहा तरसता वह चिर-वंचित जीवन!
पुलकित हो उठी, राम ने शीश झुका कर, जब सादर किया पुरोहित का पद वंदन
"यश पाओ, दीर्घ आयु पाओ, विजयी हो" अति सहज भाव से बोल उठा था रावण!

रावण के आनन पर स्मिति छाई थी विस्मित थे राम, अवाक् जानकी सुनकर!
"इस समय पुरोहित के नाते आशिष दूँ, यह नीति-विहित कर्तव्य-कर्म भी सुखकर!
कुछ क्षण अनिमिष देखता रहा, जानकी-राम के मुख रावण,
क्या पता दुखी है या प्रसन्न, वह शान्त बोलता स्वस्ति-वचन!

चुपचाप देखते रहे राम, लक्ष्मण विस्मित कपि-दल उत्सुक,
सीता को रथ पर बैठाकर, यह कह कर लौट गया दशमुख -
"यदि सह अस्तित्व चाहते हो, जामाता बन कर आना तुम
अथवा रणक्षेत्र पारकर अपनी पत्नी को ले जाना तुम!"

मन-की-मन में रह गई मातु-पितु के जामाता बन राघव सम्मुख आएँ,
सब जान समझ भी राम न जाने क्यों, संबंध कभी भी निभा नहीं पाए!

माँ बोली थी, "त्रैलोक्य वार दूंगी, पुत्री जामाता को सँग देखूँगी!
वे सास-ससुर का मान हमें दें तो, सोने की लंका उन्हे भेंट दूंगी "!

उनको तो आशा थी कि राम मुझको, अब बिदा कराने आएँगे लंका,
अंतिम क्षण तक पाला विश्वास यही, अब नहीं बजेगा युद्ध हेतु डंका!

लम्बी छायाएँ थीं अब तो वन में, कुछ कहती थीं शाखाएं हिल-हिल कर,
अति मन्द हो गईं लहरें कुल्या की, पूछती कि हम जायें, या कुछ रुक कर?

जन्म से साथ रही भटकन, बस साथ रहा एकाकीपन!
सब बीत गया, सब छूट गय़ा, रह गया रिक्त यह तन यह मन।