स्मृतियों के कोठार की बारिश / मृदुला सिंह
बारिश में हरी होती हैं यादें गाँव की
और मन में उग आता है
रोपाया हुआ धान
क्षितिज से जुड़ते पानी से लबरेज खेत
जिसके आईने में
करवट लेते बादल उभरते थे
छप्पर से टपकता पानी
पीतर के कटोरे में
टूटकर नाचता था रात भर
मन की तरह
देर तक
चाची के हाथों का जादू था
महुए का लाटा
ऐसे सीलन भरे दिनों में
जिसकी गमक से
बौरा जाता था पूरा गांव
आती है अब भी वह
सुधियों की पालकी में
चूल्हे पर चढ़ाए भूंजा की तरह
काका की बैलगाड़ी में नधे
बैलों के गले की घण्टियों के सुरों पर
थिरकती बरसात की सांझ
तह कर के रखी है
स्मृतियो के कोठार में
खुल खुल जाती है जो
इन बूंदों के साथ
बाबा की चौपाल का विमर्श
और सुखई काकू की पुकार
मर गई सब बकरियाँ हुकुम
कैसे जियेगा परिवार
उनकी कातरता से सने शब्द
हूक उठाते है अब भी
ऐसे दिनो में सोचती हूँ
कोई सुखई काका अब भी
पुकारता होगा किसी को?
अकाश भर बादलो की झड़ी में
मन गाँव हो जाता है
विचारों के फ्लेशबैक में
डूबती उतराती हूँ
अपने हरे भरे गाँव के
नदी नालों पोखरों में
क्या वहाँ अब भी पानी होगा
स्मृतियों से भर आईं मेरी आँखों जैसा?