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स्वत्व से अभिसार / जया पाठक श्रीनिवासन

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सखी,
मैं गयी थी कल
मिलने उस से
उसकी उंगलियाँ पसीजी सी
खुरदुरे हाथ
पैरों में बिवाय
यकीनन वह कुम्हार था...
जाने क्यूँ
अपनी देह
लगी सौंधी, मिट्टी सी....
 
आज फिर
मिल कर आई हूँ मैं
उस से
आज उसके हाथ
बडे सख्त थे
चमड़ी काली हो चली थी
भट्टी में लोहा गर्माते
भारी हथौडे की चोट से
बनी लगती है
अटल आस्था मेरी
लोहसाँय सी गंध यह
मुझमें...
 
उहूँ!
मन नहीं भरता मेरा
कल फिर जाउंगी
वह मंदिरों में
मूर्तियाँ गढ़ता मिलेगा मुझसे...
उसके थके कंधे-थके हाथ
छेनी हथौड़े से
तराशता मुझे
कर देगा
जड़ से चेतन...
 
हाँ सखी!
बाम्हन नहीं कर सकेगा
यह दुष्कर...
मुझे मेरे स्वत्व तक
वह कुम्हार,
लोहार, या
मूर्तिकार पंहुचा देगा
विश्वास है मुझे!