भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

स्वदेश / सनेस / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तिरहुति हमरा सभक स्वदेश, जनम लेल हम जनिक उदेश
उठी न कखनहुँ प्यासेँ कानि, कूप-कूप भरि राखथि पानि
हमरा लै जोगबै छथि अन्न बाध-बोन आँचर मे बान्हि
माय हमर छथि तिरहुति देश, जकर कोर सपनहु न कलेश॥1॥
जकर माटि माखन सँ मीठ, जकर पानि लग दूधो ढीठ
मलय वायु सँ सरस बसात पुष्ट भेल छी जनिकहि दीठ
सीखल भाषा, सीटल वेश, जतय हमर से जयतु स्वदेश॥2॥