भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

स्वर्ग-नरक / एम० के० मधु

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
बचपन में
बादलों की अंधेरी गुफा में
डूबते सूर्य को देखा है मैंने कई बार
और कई बार अंधेरे से उबरते
उस प्रकाशपुंज को
टुकड़ा-टुकड़ा फिर पूर्ण आकार लेते हुए

बचपन में
कई बार पतंग को कटकर
गिरते देखा है मैंने
और गिरते-गिरते
उड़ जाते भी
आकाश की ऊंचाई को चूमते हुए

बचपन से अब तक
कई गहरी खाई और ऊंचे पहाड़ को
पार किया है मैंने
जैसे मर-मर कर
कई जन्म जी लिया है
और जी-जी कर
कई बार
मृत्यु का वरण किया है
सत्य के पुष्प
जो मैंने अपने गमले में उपजाए हैं
कई-कई बार
जिलाया है उसने मुझको
दुष्कर्मों का कचरा भी
अपने आंगन में संजो कर रखा है जो मैंने
कई-कई बार
मारा है उसने मुझको

जब तक दादी ज़िंन्दा थी
सुनाती थी मुझको
पुनर्जन्मों के किस्से
स्वर्ग-नरक की गाथा
बहुत डराती थी मुझको
यातनाएं नरक की, सुना-सुना कर

दादी की दुनिया
और मेरी दुनिया में
कितना फ़र्क है आज
दादी ऊपर देख रही थी
मैं सामने देख रहा हूं
मेरे आंगन में फैली है
काली अंधेरी सुरंग
और मेरे गमले पर
खिला खिला है दिव्य प्रकाश
दादी की कहानी के
नरक और स्वर्ग की तरह
मेरे ही हाथों से बनते-बिगड़ते हुए।