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स्वर्णिम संकल नहीं बनूँगा / हरि ठाकुर
Kavita Kosh से
जिन नयनों में कभी
नेह की नदी नहीं लहराई
उन नयनों के लिए
कभी मैं काजल नहीं बनूँगा।
भले टूट जाए यह अंतस
रहे शेष जीवन भर अपयश
किंतु शिलाओं के इंगित पर
बादल नहीं बनूँगा।
दल-दल में फँस जाय भले रथ
काँटों से घिर जाए हर पथ
किंतु, महल के दरवाज़े का
स्वर्णिम संकल नहीं बनूँगा।
जिन नयनों में कभी
नेह की नदी नहीं लहराई
उन नयनों के लिए
कभी मैं काजल नहीं बनूँगा।