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स्वीकार / मन्त्रेश्वर झा
Kavita Kosh से
पौतीमे बन्द नहि होइछ चन्द्रमा
बन्द होइछ मात्र अन्हार
ने तरेगण के बीछि राखल जा सकैछ लॉकर मे
लॉकर मे बन्द तरेगन भऽ जाइछ
केवल पाथर के पथार
कामनाक सीता कतबो होथि
शुभक, सुन्दरि
स्वर्णमृगक शिकार करबाक प्रयास
रामोक लेल भ्रम छल
आकाश मे लगबैत रहलहुँ उद्यान
बनबैत रहलहुँ मचान
करैत रहलहुँ केवल सुखेक टा खेती
दुख के बहटारि।
फुलडाली मे जमा
होइत रहल केवल मुरझायल
सुखायल फूल
आ हरियर दमगर काँट
हे प्रभु, ई कोन थिक माया अहाँक
पूजा, अराधना, विद्या, वैभव कि ज्ञान
बढ़बैत रहल सुरसा भ्रम आ फरसा अभिमान
सुख दुख सँ मोक्षक तकैत रहलहुँ प्रतिकार
ने बुझलहुँ दंडवत समर्पण
ने कयलहुँ संपूर्णकें स्वीकार।