स्वेटर / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
तुमने जो स्वेटर
मुझे बुनकर दिया है
उसमें कितने घर हैं
यह मैं नहीं जानता,
न ही यह
कि हर घर में तुम कितनी
और किस तरह बैठी हो,
रोशनी आने
और धुआँ निकलने के रास्ते
तुमने छोड़े हैं या नहीं,
सिर्फ़ यह जानता हूँ
कि मेरी एक धड़कन है
और उसके ऊपर चन्द पसलियाँ हैं
और उनसे चिपके
घर ही घर हैं
तुम्हारे रचे घर
मेरे न हो कर भी मेरे लिए.
अब इसे पहनकर
बाहर की बर्फ़ में
मैं निकल जाऊँगा.
गुर्राती कटखनी हवाओं को
मेरी पसलियों तक आने से
रोकने के लिए
तुम्हारे ये घर
कितनी किले बन्दी कर सकेंगे
यह मैं नही जानता,
इतना ज़रूर जानता हूँ
कि उनके नीचे बेचैन
मेरी धड़कनों के साथ
उनका सीधा टकराव शुरू हो गया है.
मानता हूँ
जहाँ पसलियाँ अड़ाऊँगा
वहाँ ये मेरे साथ होंगे
लेकिन जहाँ मात खाऊँगा
वहाँ इन धड़कनों के साथ कौन होगा?
सदियों से
हर एक
एक दूसरे के लिए
ऐसे ही घर रचता रहा है
जो पसलियों के नीचे के लिए नहीं होते !
इससे अच्छा था
तुम प्यार भरी दृष्टि
मशाल की तरह
इन धड़कनों के पास गड़ा देतीं
कम —से—कम उनसे
मैं शत्रुओं का सही— सही
चेहरा तो पहचान लेता
गुर्राती हवाओं के दाँत
कितने नुकीले हैं जान लेता .
अब तो जब मैं
तूफ़ानों से लड़ता— जूझता
औंधे मुँह गिर पड़ूँगा
तो आँखों की बुझती रोशनी में
तुम्हारी सिलाइयाँ
नंगे पेड़ों—सी दीखेंगी
जिन पर न कोई पत्ता होगा न पक्षी
जो धीरे—धीरे बर्फ़ से इस कदर सफ़ेद हो जायेंगी
जैसे लाश गाड़ी में शव ले जाने वाले.
इसके बाद
तूफ़ान खत्म हो जाने पर
शायद तुम मेरी खोज में आओ
और मेरी लाश को
पसलियों पर चिपके अपने घरों के सहारे
पहचान लो
और खुश होओ कि तुमने
मेरी पहचान बनाने में
मदद की है
और दूसरा स्वेटर बुनने लगो.