भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हँसता ही रहा / लीलाधर मंडलोई

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शहर के उसी अस्‍पताल में
कि जहां हूं
कोई नहीं जानता
डॉक्‍टर को पहचानने में रही दिक्‍कत
कि अजनबी हुआ

बढ़ गई आंखों की तकलीफ
पीठ के दर्द से बेतरह आजिज
पिंडलियां बचपन की हाड़-तोड़ मजूरी से टूटीं
कि उमगती पीड़ा में बुरी तरह
और कुछ नई बीमारियों की आवक

नींद भरसक कोशिशों के बाद कोसों दूर
रात दिन से अधिक बेचैन और ऊब भरी
जागता रहता हूं याद करता वह सब
याद करने से जिसे तंग आत्‍मा

कोसता हूं बटुआ कि वह खाली हुआ
बच्‍चों में बढ़ते धैर्य से परेशान
हिड़स के मांगते नहीं कुछ भी अब
पत्‍नी जो कभी-कभार घूमती थी संग-साथ
डूबी होती काम के बहानों में

बदल जाता है सब
स्‍वभाव नातेदारों का
यहां तक उनका रहे जो हमजुल्‍फ-हमखयाल
एक दोस्‍त की आंखों में कराते इलाज
कि खेलते 'साहिबा' के साथ बेशिनाख्‍त
मैं हंसा तो हंसता ही रहा देर तलक