भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हथेली पे लिक्खें करम देखते हैं / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
हथेली पर लिक्खे करम देखते हैं
मसर्रत नहीं सिर्फ़ ग़म देखते हैं
रखे हाथ पर हाथ बैठे रहें जो
मुकद्दर का झूठा भरम देखते हैं
चुराते हैं मेहनत से जो जी हमेशा
मिले जो भी उनको वह कम देखते हैं
मुसीबत के मारे हुए हैं यहाँ जो
हुआ और उन पर सितम देखते हैं
समझते रहे संगदिल थे जिन्हें हम
हुई आँख उन की भी नम देखते हैं
हुईं ख़्वाब हैं सारी बातें वफ़ा की
बने आज पत्थर सनम देखते हैं
जमाने में कीमत न रिश्तों की कोई
यहाँ टूटती हर क़सम देखते हैं