भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हनमू-पनमू / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
चिन्ता में बैठा पनमू है, अब क्या होगा बेटा
लपक गया न्यायालय मंदिर-मस्जिद वाला लड्डू
कई दशक से दिखता था जो एकदम निरा फिसड्डू
फूल मार के मारा है, पर अपने लिए चमेटा ।
अब हनमू को बस में रखना पनमू को है मुश्किल
अलग खटालों के हनमू अब चैपालों में मिलते
गाँवों के पोखर में जैसे कमल फूल हैं खिलते
निराकार-साकार हुए हैं एक भोज में शामिल ।
पनमू, पान चबाने के दिन गये, तमोली चेता
कब तक भेंड़ लड़ाओगे, डाले गर्दन में रस्सी
हनमू नहीं ऊँट या बकरा, पाठा या फिर खस्सी
न्यायालय को समझो पनमू, उससे बड़ा न नेता ।
हनमू समझ गया हैµपनमू हाथी की है जोंक
भरे गाछ को दीमक करती भीतर-भीतर फोंक ।