भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हम-सफ़र ज़ीस्त का सूरज को बनाए रक्खा / शहनाज़ नूर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम-सफ़र ज़ीस्त का सूरज को बनाए रक्खा
अपने साए से ही क़द अपना बढ़ाए रक्खा

शोला-ए-याद को लिपटाए रखा दामन से
इस बहाने से तुझे अपना बनाए रक्खा

लोग आँखों से ही अंदाज़ा-ए-ग़म करते हैं
हम ने आँखों में तिरा वस्ल सजाए रक्खा

इक यही तो मेरा हमराज़ था तन्हाई का
दर्द को दिल की हवेली में छुपाए रक्खा

अपना अंदाज़-ए-सफ़र सब से जुदागाना रहा
आँखों में शौक़-ए-सफ़र दिल को सराए रक्खा