हम अमानव क्यों बनें / संदीप द्विवेदी
वेदों में जो ज्ञान है
शक्ति शाश्वत लक्ष्मी
पत्थर में जिसको देखकर
करते हो जिसकी स्तुति
मंत्रो में सौ गुणगान कर
लिखते हो गरिमा की कड़ी
भगवती तुल्य स्वरुप पर
हम अत्याचार क्यों करें
हम अमानव क्यों बनें
जिसकी गोद में तू पला
पायी है जन्नत की ख़ुशी
धागे की छोटी डोर पर
महफूज़ है दुनिया तेरी
हाथ थाम जो तेरे संग
हंसती रही रोती रही
जो हर जगह और कहीं
रिश्तों में सदा मिलती रही
ऐसे ही उसके रूप पर
नीयत से अपनी क्यों गिरें
हम अमानव क्यों बनें
जिस संस्कृति में हम पले
क्या उसका यही व्यव्हार है
संस्कार जो उससे मिला
क्या यही इसका सार है ?
स्वर्णिम धरा के श्रेष्ठ मानव
फिर कर्म ऐसे क्यों करें
जिसकी वजह से श्रेष्ठ हैं
उस संस्कृति को लज्जित क्यों करें
हम अमानव क्यों बनें?