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हम अहले इश्क़ उल्फ़त का समंदर ले के चलते हैं / शुचि 'भवि'

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हम अहले इश्क़ उल्फ़त का समंदर ले के चलते हैं
अना वाले तो बस हाथों में पत्थर ले के चलते हैं

वो चलते हैं मुहब्बत के गुलों को हाथ में लेकर
मगर नफ़रत के कांटे दिल के अन्दर ले के चलते हैं

नई तहज़ीब देखी है बदलते वक़्त में हमने
सब अपनी छोड ग़ैरो की ज़मीं ज़र ले के चलते हैं

हक़ीक़त है किसी अंजाम से डरकर नहीं चलते
जिगर वाले कफ़न अपना तो अक्सर ले के चलते हैं

सिपाही रातदिन लड़ते हैं सरहद की हिफाज़त में
वो अपनी मौत को ‘भवि’ अपने सर पर ले के चलते हैं