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हम उखड़े थे अपनी ज़मीन से / गीताश्री
Kavita Kosh से
हम उखड़े थे अपनी ज़मीन से,
मिले थे किसी आकाश में,
जीते रहे बरसो किसी सुनसान द्वीप पर बेआवाज़
टहनियों पर लटकते रहे अबाबीलो की तरह,
रेत पर फिसलते रहे सीप की तरह और लहरो की तरह पछाड़े खाते रहे,
सब गया बेकार,
कि हमारी दुनिया ना कभी बननी थी हमारे मुताबिक
ना बन पाएगी अब कभी,
वैसी जैसी कि हमने चाही थी और
हम वो होना चाहते थे जो हम नहीं थे
हम वो पाना चाहते थे जिसके हक़दार नहीं थे हम
हमने अपने अपने दामन बड़े कर लिए,
चादर हवा में उड़ी और चिथड़े-चिथड़े होकर नुचे पंखों की तरह फैल गई...
दिगन्त में ।