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हम कलंकित / मन्त्रेश्वर झा

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प्रसिद्ध श्रोत्रिय ब्राह्मण कुल मे भेल जन्म
से लागि गेल दोष, लागि गेल कलंक
होइत रहलहुँ सोतीबा सँ साविकक
दुराचारी ‘वभना’
बनैत रहलहुँ सामाजिक अन्यायक पर्याय
न्याय पथक काँट
होइत रहलहुँ कलंकित
लगैत गेल कलंक, छुटल नहि कहियो
फस्ट केलहुँ स्कूलमे, कालेजमे, विश्वविद्यालय मे
फस्ट केलहुँ एक बेर, बेर-बेर
तकरो लागल कलंक,
‘पैरवी पर भेल हेतनि रिजल्ट
नहि तऽ छथि केहन बुड़िलेल
अबैत तऽ छनि किछुओ नहि’
कहय लागल कते लोक।
हमरो केहन दुर्भाग्य
जे आइ.ए.एस. मे भऽ गेल नियुक्ति
करैत रहलहुँ मैथिली मे रचना
से कतोक लेखक आलोचक मे मचि गेल हडकंप
कलंकित भऽ गेलहुँ फेर
‘झाड़ैत छथि अनेरे ई अपन अफसरी
लिखैत छथि ढाकीक ढाकी
छपबैत छथि मोट मोट पोथी, किदन कहाँ दन
सभ ‘बिधा’ मे लगबैत रहैत छथि हाथ
करैत रहैत छथि लौल
सरकारो नहि रहल चुपचाप बैसल
झाजी आ मैथिली लेखन?
सरकारोक कान भऽ गेलै ठाढ़
आ करय लागल कलंकित।
कलंक पुराणक बन्द नहि भेल अध्याय,
कयलहुँ हम जैह।
संबद्ध भेलहुँ अरिपन नाट्यमंच सँ
चलबैत रहलहुँ अपना तरहें
साहित्यिक-सांस्कृतिक आन्दोलन
करैत रहलहुँ तन मन धन सँ
पटना मे, दिल्ली मे, विराट नगर मे
अन्तर्राष्ट्रीय नाट्य समारोह
मुदा अरिपनो भऽ गेल कलंकित जुटिते हमर नाम।
राजनेता लोकनिकें देखओलहुँ यथोचित आदर-स्नेह
मुदा कयलहुँ नहि दरबार, कयलहुँ नहि फ्लैटरी
नहि बेचलहुँ आत्मसम्मान
से भऽ गेलहुँ कलंकित ओतहु
सरकारी दरबारीक बलिहारी।
हम नहि छी निराश
जतबा लागल कलंक, भेलहुँ जतबा बदनाम
नामो भेल ततबा
बटोही कें लगिते छैक ठेस,
गड़िते छैक काँट
रुकत नहि हमर यात्रा।
चमकैत अछि चन्द्रमा जकाँ जैक, तकरे लगैत छैक दाग
कलंकित होइत छैक वैह।
कतबो मुनब आँखि, कतबो बहटारब चन्द्रमा
उगले रहल चन्द्रमा
बँटबे करत भरि भरि राति प्रकाश
अपन अपार शीतलता, अपना भरि, जाधरि, ताधरि।
हम तऽ छी मात्र एक भगजोगनी
करैत छी मात्र चमकबाक अभिनय
मुदा जँ होइत रहब एहिना कलंकित
लगैत रहत दाग
तऽ बनि जायब कहियो ने कहियो चन्द्रमा अवश्य।
कलंक थिक सफलताक अलंकार
सभटा कलंक हमरा शिरोधार्य।