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हम कहते हैं बात बराबर / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'

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हम कहते हैं बात बराबर
छोटी बड़ी है जात बराबर
 
माँ और बाप हैं इक जुड़वां के
पैदा साथ न तात बराबर
 
दोनों हैं इक डाल के पत्ते
दोनों की क्या बात बराबर
 
देखो गज मूषक में अन्तर
कब दोनों के दांत बराबर
 
बाप हैं दस के निर्वंसी भी
होंगे कैसे नात बराबर
 
काक और कोयल दोनों बोलें
कहिये क्यों न गात बराबर
 
होता है इक रोज बरस में
जिसका दिन और रात बराबर
 
चाहे खा लें काजू पिस्ता
है सबकी अवकात बराबर
 
कोइ न जाने किस जा खड़ी है
मौत लगाए घात बराबर
 
नैन 'रक़ीब' सजल हैं तेरे
क्यों ना हो फिर मात बराबर