हम टेढ़े-मेढ़े हैं तो क्या / उमाकांत मालवीय
लड़के: हम टेढ़े-मेढ़े भी हैं तो क्या,
लड्डू हैं घी के।
लड़कियाँ: तुम ऊँची दूकानों वाले,
पकवान निरे फीके।
लड़के: हो लाख भले चूहाखानी,
पर चुहिया से डरती।
मरने से पहले डरपोकों की,
सौ मौतें मरती।
पूछो इन जीने वालों से,
यूँ क्या होगा जी के।
हम टेढ़े-मेढ़े भी हैं तो क्या,
लड्डू हैं घी के।
लड़कियाँ: तुम सौ मुक्के में पापड़ तोड़ो,
तीस मार खाँ जी।
बस पानी पड़े बताशे जैसे,
गल जाते ‘प्रा’ जी।
हम मरने वाले नहीं भले,
कोसो पानी पी के।
तुम ऊँची दूकानों वाले,
पकवान निरे फीके।
लड़के: जनमी लड़की, पर फैशन में,
बनती भाई साहब।
इन लड़केनुमा लड़कियों से,
क्या होगा भी या रब।
जैसे बिल्ली के भाग खुले हैं,
टूट गए छींके!
हम टेढ़े-मेढ़े भी हैं तो क्या,
लड्डू हैं घी के!
लड़कियाँ: जनमे लड़के, पर फैशन में,
तुम हीरोइन बनते।
इन लड़कीनुमा बालकों से
क्या होगा भी भंते।
मूली के पत्ते देख जिन्हें,
आ जाती हैं छींकें।
लड़के: तुम प्यारी प्यारी बहना हो,
हम बीरन हैं जी के।
लड़कियाँ: तुम प्यारे-प्यारे बीरन,
भैया दोयज के टीके।
-साभार: पराग, फरवरी, 1978, 78