हम वैसे क्यों नहीं होते / मोहन सपरा
हम वैसे क्यों नहीं होते
जैसे
घोंसला बनाती अबाबील
या फिर
हर रोज़
घर की मुंडेर पर आ बैठने वाला
कौआ, कबूतर अथवा चिड़िया ।
कबूतर तो हद करता है
अक्सर
मेरे कन्धे व सिर पर
आ बैठने की कोशिश करता है,
चिड़िया की तो
बात ही क्या करूँ ?
हर रोज़
घर के आँगन में
दीवार पर सटे
बड़े आईने पर आ बैठती है
और ठोंकती है -
चोंच
और ख़ुद ही ज़ख़्मी होती रहती है,
बच्चे अर्थ ढूँढ़ने की कोशिश करते हैं
और हम अनर्थ की आशंका से
दीवार से आईना उतार कर
कमरे में रख देते हैं
और निश्चिन्त होने की मुद्रा अपना लेते है
सच, आईना बड़ी ख़तरनाक चीज़ है
सब को नंगा कर देता है
फिर भी हर घर में होता है
और हर कोई उसे देखता है
पता नहीं क्यों ?
हम वैसे क्यों नहीं होते
जैसे कि
आसमान में गरजता-बरसता बादल
जिसपर
प्यार और गुस्सा दोनों
हम करते हैं
और भरते हैं
दम
समाजवादी होने का,
हम कितने समाजवादी हैं ?
यह सवाल बार - बार
मस्तिष्क में सरसराता है
और कई बार तो
मूर्छित कर जाता है
इसी सवाल का तिलिस्म
अब हर किसी को अन्धा कर रहा है
लगातार।
रोशनी के ताज
अब धुँधले दिखाई दे रहे हैं
और व्यवस्था
शहर का छोटा-बड़ा कारखाना
या फिर स्कूल / कालेज
सब कुछ
मेरे लिए
विवाद का विषय बन रहे हैं
और यह जानते हुए भी
कि विवाद से व्यवस्था नहीं चलती
मेरा सुलगता क्रोध
किसी हथियार में बदल नहीं पाता
सिवाय कविता के !
बन्धु, फिर वही सवाल
मुझे अपमानित करने लगा है
कि हम
क्यों नहीं होते -
नदी
पहाड़
जल
आबनूस के पेड़
आग उगलता सूर्य
चाँदनी बहाता चाँद
अथवा ताज़गी देती सुबह
या फिर शिथिल करती शाम।
सच, पता नहीं
ऐसे क्यों होते हैं हम
जैसे कि
उम्मीद की तरह फैली ज़मीन
या फिर
चेहरे / शरीर पर बलात्
आ चिपकती मिट्टी
और मुखौटे की तरह
दिन को ढँकता अन्धकार ;
अन्धकार,
जो चीरता है
फाड़ता है
नफ़रत के ज़हरीले वृक्ष उगाता है,
शायद, यह अन्धकार ही तो है
जो मुझे
धर्म / कर्म के बीच
जर्जर / अकेला
और भिनभिनाता-सा छोड़ जाता है
अक्सर;
और हम
लिजलिजाती मानसिकता लिए
शहर के सन्नाटे
और लोगों की उदासी का कारण
ढूँढने में मसरूफ़ रहने की
अधपकी ज़िद्द पकड़ लेते हैं
इस देश में ।